परिवर्तन (लेख)

                                परिवर्तन
समय के साथ हर क्षेत्र गतिविधि, सोच में परिवर्तन देखने को मिलता है। यदि हम कहें कि परिवर्तन प्रकृति का अनिवार्य हिस्सा है, तो भी इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। मनोचिकित्सकों का ऐसा मानना है कि मनुष्य जो कुछ भी अपने पूरे जीवनकाल में सीखता या करता है- उसका 90% भाग तो वह अपने जीवनकाल के पहले पांच वर्षों में ही सीख जाता है- वह पहचानना सीखता है, चलना सीखता है, बोलना सीखता है, अपनी मनोभावना प्रकट करना सीखता है और न जाने क्या – क्या। ये सब तथ्य सिद्ध करते हैं कि मानव जीवन के पहले कुछ वर्षों में ही मानव कितने परिवर्तनों को बड़ी तेज़ी से आत्मसात करता जाता है।
   इस अवस्था के बाद व्यक्ति अपने टीन्स ( 13 से 19 वर्ष की आयु) में आते ही अनेको को मानसिक व शारीरिक परिवर्तनों का सामना करता है। शायद यही वो समयावधी है जिसमें हर माता- पिता अपने बच्चों का विशेष ध्यान रखते हैं क्योंकि यही वो समयावधि है जिसमें एक व्यक्ति को समझ नहीं आता कि आखिर उसके साथ हो क्या रहा है? उसकी आवाज बदलने लगती है, उसका शारीरिक ढांचा बदलने लगता है, उसकी शक्ल में बदलाव आने लगता है, उसके मित्र बदलने लगते है, उसके कार्यक्षेत्र में भी आमूल-चूल परिवर्तन देखने को मिलता है। सबसे महत्वपूर्ण बदलाव उसके सोच में आने लगता है। कई बार तो लगने लगता है मानो सारा जग ही उसके विरुद्ध है। शायद इन्हीं परिवर्तनों को देखकर माँ-बाप भी उसके प्रति सजग होने लगते हैं। यह सजगता बढ़ते हुए नौजवान को पाबंदियों (बाधाएं) लगने लगती हैं। वह उन बाधाओं को दूर करने के लिए विरोध प्रकट करने लगता है और समाज के बनाए नियमों को तोड़ने का प्रयत्न करने लगता है। इसे हम यूँ भी देख सकते हैं कि वह इन सामाजिक नियमों में परिवर्तन के लिए छटपटाने लगता हैमें छटपटाहट में वह जाने अनजाने में गलत रास्ते पर चल पड़ता है। इसका कारण शायद उस में अनुभव की कमी या सही मार्गदर्शन न मिलना प्रतीत होता है।
 इस तरह के परिवर्तन यहीं रुकने का नाम नही लेते। व्यस्क होने पर इंसान को अलग-अलग परिस्थितियों का भी सामना करना पड़ता है। इनमें कड़वे, मीठे तत्कालीन अनहोने सभी तरह के अनुभव देखने में आते हैं। ज्यादातर परिस्थितियों का सामना करने का व्यक्ति के पास कोई अनुभव भी नहीं होता। इसका तत्काल उदाहरण हमारे सामने कोरोना महामारी का प्रकोप है, जिसने राष्टों तक के चूल हिला दि।
इस तरह बदलाव हम व्यक्तिगत, सामूहिक, सामाजिक व राष्ट्रीय पर भी अनुभव करते हैं। समय- समय पर आ रहे इन परिवर्तनों को हम सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिस्थिति के आधार पर भी समझ सकते हैं।
प्राचीन भारत के इतिहास को पढ़ने पर हमें पता चलता है कि हमारे सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन आया है। एक समय था जब भारत विश्व में सबसे धनाढ्य राष्ट्र था। आर्थिक दृष्टि से दुनिया में सभी राष्ट्र भारत से व्यापार करने की इच्छुक थे क्योंकि भारत की आर्थिक समृद्धि सबको आकर्षित करती थी। भारत एक सोने की चिड़िया मानी जाती थी।
इस आर्थिक समृद्धि का कारण या यहाँ की समृद्ध सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था।
उस समय भारत के राजतंत्र विद्यमान था। याने राजनैतिक इस दृष्टि से समाज का सबसे ताकतवर व्यक्ति राजा था। समाज या राष्ट्र की गतिविधियों राजा के सोच के अनुसार चलती थी। राजा की दूरदर्शिता राष्ट्र को ताकतवर या कमजोर बनाती थी। इतिहास से पता चलता है कि इन राजाओं की कार्यकुशलता और दूरदर्शिता ने ही भारत को दुनिया का सबसे समृद्ध राष्ट्र कई सदियों तक बनाए रखा ।
लेकिन समय के साथ इसमें भी परिवर्तन देखने को मिला। राजतंत्र कमजोर होता चला गया। उसमें अनेकों कमजोरियां देखने में आई। जो राष्ट्र दुनिया का सबसे ताकतवर व समृद्ध उसे परातंत्र का अनुभव भी करना पड़ा।
वर्तमान में हम एक लोकतंत्र है जिसका शाब्दिक अर्थ है - लोगों के द्वारा बनाया गया तंत्र अथवा लोगों द्वारा बनाई गई सरकार /प्रतिनिधि।
हम एक मानव के जीवनकाल का उदाहरण ले या राष्ट्र का - परिवर्तन अवश्यंभावी है। इससे कोई अछूता नहीं है। यह हमें समयानुकूल स्वीकार करना ही होता है।
लेकिन फिर भी मानव परिवर्तन का विरोध करता है, वह बदलती परिस्थितियों में असहज महसूस करता है।
क्या कोई इलाज है?
                                            Dr. N.S. Rathod